शीत का उत्कर्षकालीन समय था। प्रात: 4.45 बजे ट्रेन जिस स्टेशन पर रूकी, वह था बेगूसराय। छत्तीसगढ़ प्रदेश के किसी छोटे शहर के स्टेशन जैसा-इत्मीनान और सुकून से भरा। इक्के-दुक्के लोग आते-जाते दिखे, सूचित भाव से बतियाते हुए। किसी मेट्रो सिटी जैसे धड़धड़ाते, ऊपर-नीचे, आगे-पीचे, भागते-दौड़ते, गिरते-हपटते, छकियाते, रफ्तार पकडऩे की धून में पगलाए लोग नहीं थे यहां। गिने-चुने कुछ चेहरे या कहें कुछ साये।
अंधेरा पूरी तरह छटा नहीं था। हमारे पासदो सूटकेस और एक एयरबैग था। काव्यकोष्ठी में सम्मिलित होने और पुस्तक का विमोचन करने आए थे हम। ऊनी वस्त्रों और कम्बल सेहमारे (मेरे साथ पतिदेव श्री प्रदीप जी भी थे) हाथ-पैर, कान-मूंह सब ढंके थे, सिर्फ आंखें टुकुर-टुकुर देख रहीं थी इधर-उधर। नकाबपोशों जैसी हमारी वेशभूषा, पहनावा और हाथ का सूटकेस यह भ्रम उत्पन्न कर रहा था कि सूटकेस में कपड़े लत्ते और गोष्ठी में पढ़ी जाने वाली कविता न होकर चोरी-डकैती या फिरौती के रूपए होंगे।
रमण साहब आने वाले थे हमें रिसीव करने। पर अब तक आए नहीं थे, और जाने आ भी जाते तो हम पहचानते कि नहीं, क्योंकि हमारी तरह ही सबका हुलिया दिख रहा था। दो कदम आगे बढ़े तो अचानक कानों में चिर-परिचित आवाज सुनाई पड़ी। नमस्ते मैडम। आइए अग्रवाल साहब। इनसे मिलिए हमारी धर्मपत्नी हैं। सूटकेस नीचे रखकर हमने अभिवादन में अपने हाथ जोड़ें। रमण साहब (हमारे मेजबान) इस कडक़ड़ाती ठंड में 20 कि.मी. दूर गांव से सपत्नीक हमें लेने आये थे। हमारे न-न करतेरहने पर भी लगेज उन दोनों ने उठा लिया कौन कहता है भारत की संस्कृति, रस्म-रिवाज और बोल-चाल पीड़ी-दर पीढ़ी पीछे छूटती जा रही है?
अतिथि देवोभव: की संस्कृति लुप्तप्राय होती जा रही है? हम उनके साथ स्टेशन से बाहर आए। उनके साथ उनके कार में रवाना हुए। कुछ ही देर में उनके गांव पहुंच गए। गांव में आज उनके नवनिर्मित मकान का उद्घाटन समारोह था। हमें देखकर पूरा परिवार हरसिंगार की महक बिखेरता बिछ सा गया कॉफी आई। सबने गर्मागर्म काफी की चुस्की ली और फिर शाम को मिलने के वायदे के साथ हम सब रमण साहब के साथ होटल सायोनारा आ गए।
यहां आप रिलैक्स होइए। जो खाना हो आर्डर कर लें। हमारे आने की खुशी उनके चेहरे से झलक रही थी। मैं शाम को गाड़ी भेजूंगा। आकर इस मकान को घर बनाइए। उन्होंने निश्छल हंसी बिखेरी।
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