भारतवर्ष की पवित्र भूमि पर जहाँ देवता भी जन्म लेने में अपने को कृत्कृत्य मानते हैं, समय-समय पर अधर्म के नाश और धर्म के उत्थान हेतु महान् तपस्वी, महात्मा व लोकसंग्रही महापुरुषों ने अवतार लिया है।
इसी महान् परम्परा में जनमानस के हृदय में भगवद भक्ति की अक्षुण्ण भागीरथी धारा प्रवाहित करने वाले महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्य का भी यहाँ अवतार हुआ। वल्लभाचार्य ने अन्य वैष्णव आचार्यों की भाँति भक्ति के शास्त्रीय स्वरूप को ही अधिक महत्व दिया है। उत्तर भारत में प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति को दृढ़ता प्रदान करने में उनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
उन्होंने जहाँ एक ओर भगवतकृपा पर आधारित भक्तिपरक 'पुष्टिमार्ग' का प्रवर्तन किया वहीं दूसरी ओर 'शुध्दाद्वैत' नाम से दार्शनिक सिध्दांत का प्रतिपादन भी किया। साथ ही अपने मतानुसार विधि-विधान सहित पूजा-प्रक्रिया भी सुनिश्चित की। इस प्रकार वल्लभ मत का सैध्दान्तिक व व्यावहारिक पक्ष दोनों ही अत्यन्त पुष्ट और समृध्द है।
No comments:
Post a Comment