Tuesday 11 July 2017

local art master in hindi



हमर संस्कृति के पहचान ल बताये बर हमर शिक्षा प्रणाली म जगह होना चाही। पहिली के शिक्षा प्रणाली अंगरेज मन के आवश्यकतानुसार रहिस हे ऊंखर रहिस हे के सहर अउ गांव के बीच सांस्कृतिक दूरी ल बढ़ाये जाय। येखर परिणाम होईस सहरी युवा म सांस्कृतिक पहचान म कमी आइस। अऊ गांव डाहर के जिनगी जुन्ना संस्कृति म ठहर गे। ये खाई ह आज तक नई पटे हावय। येला सांस्कृतिक, शैक्षणिक कार्यक्रम ले पाटना चाही।

हबीब तनवीर के कहना रहिस हे, के भारत एक कृषि प्रधान देस आय। इहां के जनसंख्या बहुत जादा हावय, ओखर अधिक से अधिक जनसंख्या ह परखामन ले मिले हावय ओला ओमन लिख नई सकंय। जेन मनखे मन सिक्छा पाके सहर म आगे तेन मन सहरी संस्कृति ल अपना लेथे अउ अपन संस्कृति ले दूरिहा जथे। इही कारण आय हमर संस्कृति के गंवाय के।

मुम्बई, कलकत्ता, दिल्ली सरीख कई ठन सहर म थियेटर हावय, जिहां मौलिक नाटक तइयार होथे फेर ओला अंगरी म गिने जा सकथे। गिरीश कर्नाड ह रोचक कन्नड़ नाटक 'हयवदन' तइया करीस। जेमा सिर घोड़ा के अउ सरीर मनखे के एक पात्र हावय जोन ह अपन इसी सरीर ले परेसान हावय। अइसने बंगला भाषा म उत्पल दत्त ह नाटक 'लेनिनेर डाक' बनइस। जेमा निर्देशक घलो रहिस हे। ये ह 'जात्रा' ले मिलत-जुलत रहिस हे। एखर बाद मुंबई के पु.ल. देशपांडे ह मराठी लोकनाटक तमाशा के तर्ज म मराठी लिखिस अउ मंच करीस।

लोककला ऊपर मंचन करइया हबीब ह अकेल्ला नोहय। ये परम्परा के एक कड़ी आय फेर लोककला संग अपन विशेषता ल मिलाके अद्भुत शैली के विकास करइया ये ह अकेल्ला मनखे आय। ये शैली ह 1940 के दशक म बहुत प्रसिध्द रहिस हे जब इंडियन प्यूपिल्स थियेटर एसोसिएशन के संग बलराज साहनी, शंभू मित्रा तथा दीना पाठक सरीख मनखे मन पहिली बेर लोक नाटक ल समकालीन सार्थक रूप म बना के प्रस्तुत करीन। आज अइसना प्रयास नहीं के बरोबर हे।

हबीब तनवीर ह 'चरनदास चोर' म एक राजस्थानी कथा ल छग प्रहसन शैली म उहें के भाषा म प्रस्तुत करीस। छग के लोकनाटक के शैली म नवा नाटक लिख के उही ढंग ले प्रस्तुत करीस। बोलचाल के भाषा होय के कारन ये ह बहुत बड़े जनसमुदाय तक पहुंच सकथे। पारम्परिक पध्दतियों के उपयोग के बाद भी की ठन नाटक म सूत्रधार वाचक या फेर स्वयं पात्र द्वारा एक या अनेक स्थान के सूचना देय के कला के घलो प्रयोग होय हावय। भारतीय अउ हिन्दी रंगमंच म कल्पनाशीलता अउ सूक्ष्मता पहिली ले बहुत बाढ़ गे हावय। इही कारन आय कोनो-कोनो जगह म नाटय प्रदर्शन ह कौशलपूर्ण कलात्मक अउ स्तरीय हो हावय।

हबीब के ये स्पष्ट मन रहिस हे, के सब ल अनुभव हो जाना चाही के बूड़ती डाहर के देस ले उधार लेय या फेर नकल वाला सहरी थियेटर के स्वरूप ह अपूर्व अउ अपर्याप्त हे। ये ह वर्तमान भारत के मुख्य समस्या ल दूर करे म असक्षम हावय। सिरिफ गांव में ही भारत के नाटय परम्परा ह जियत हावय अउ सुरक्षित हे। हमर संस्कृति के बहुआयामी पक्ष के साफ अउ सही चित्र लोकनाटय म देखे जा सकथे। गांव के लोक नाटय ल प्रोत्साहित करना जरूरी हे। ओखर सम्पूर्ण विकास बर सही परिवेश देवाय के जरूरत हे। ये ह तब होही जब युवा वर्ग ल बताय जाय के थियेटर म लोक परम्परा के काय प्रभाव परही। हबीब के कहना रहिस हे हमन अपन परम्परा के सीमा ल तो जानत नइअन अउ विश्व में जेन होय हे ओला जाने बिगन उही डाहर बढ़ना हमर संस्कृति के उत्थान बर घातक हावय। पहिली अपन संस्कृति ल पूरा जानव ओखर बाद ओला आधार बना के दूसर के या बाहर के संस्कृति ल जानव। ऐला जानना घलो कठिन हावय। काबर के हमर कीमती सांस्कृतिक परम्परा ह गरीबी के क्षेत्र म गांव म बगरे हावय। भारत के अधिक से अधिक जनसंख्या गरीब हावय।

हबीब के कहना हे के सब सोचथे के आज के सामाजिक जरूरत हे आर्थिक विकास अउ सांस्कृतिक परिवर्तन। दूनों म विरोधाभास हे। आज औद्योगिकरण ल बढ़ाना हे एखर ले आर्थिक विकास होही, सामाजिक परिवर्तन होही, गरीबी तेजी से कम होही। आशंका होथे के आर्थिक विकास के संग हमर सांस्कृतिक परम्परा ह कमती झन हो जाय। सामाजिक परिवर्तन होही त सांस्कृतिक जीवन घलो बदलही। ये हर सोचे के विषय आय अंग्रेज के शासनकाल म हमर सांस्कृतिक पहिचान कमजोर परगे रहिस हे। अब ये बहुत जरूरी होगे हे के अगर लोक परम्परा ल संजो के रखन अउ बूड़ती डाहर के संस्कृति ले काय नुकसान होवत हावय तेला नवा पीढ़ी ल बतावन।

हमर संस्कृति के पहचान ल बताये बर हमर शिक्षा प्रणाली म जगह होना चाही। पहिली के शिक्षा प्रणाली अंगरेज मन के आवश्यकतानुसार रहिस हे ऊंखर उद्देश्य रहिस हे के सहर अउ गांव के बीच के सांस्कृतिक दूरी ल बढ़ाये जाय। येखर परिणाम होईस सहरी युवा म सांस्कृतिक पहचान म कमी आइस। अऊ गांव डाहर के जिनगी जुन्ना संस्कृति म ठहर गे। ये खाई ह आज तक नई पटे हावय। येला सांस्कृतिक, शैक्षणिक कार्यक्रम ले पाटना चाही।

अइसने हबीब ह लोककला के विकास अउ प्रसार बर बहुत सोचत रहिस। अपन स्वयं के स्तर ले लोक परम्परा के संरक्षण करे के प्रयास करत रहिस हे अउ शासन तथा आम मनखे ले घलो आशा रखथे। ओखर प्रयास के नतीजा आय के छत्तीसगढ़ी भाषा, नृत्य, गायन अउ लोककथा जम्मो दुनियां म बगरे हावय। येला अउ बगराय के जरूरत हावय। अब हमला अइसना कलाप्रेमी मनखे दुबारा मिलना कठिन हे।

लोकनाटय दू भाग म बंटगे। रासलीला, रामलीला, भागवत मेला, प्रहलाद नाटक, जात्रा पारम्परिक नाटय शैली ह मंदिर तक सिमट के रहिगे। येला धार्मिकता जादा मिलिस। कलात्मकता के क्षेत्र म तमाशा, नौटंकी, नाचा, पंडवानी मन ल जगह मिलिस अउ ये ह निमगा मनोरंजन के साधन बनगे। येमा कुछु विकृति घलो आय ले धर लीस। ओडिसी शास्त्रीय नृत्य के रूप म विश्व स्तर के मंच म विराजमान हे तेन हे। आज ले पचास साल पहिली लोकनृत्य के रूप म जाने जात रहिस हे। स्वतंत्रता के बाद श्रीमती कमला देवी चट्टोपाध्याय के अध्यक्षता म भारतीय नाटय संघ द्वारा एक संगोष्ठी रखे गीस। जेमा एक सत्र म सुझाव देय गीस के भारतीय नाटककार अउ निर्देशक मन ल पारम्परिक नाटय शैली ले कुछ सीखना चाही। त परिचर्चा में अनेक भागीदार मन के विचार के खिल्ली उड़ाय रहिन हे। कुछ मन कहिन के गांव बर लोक नाटय ठीक हो सकथे फेर आधुनिक सहर के नाटक मन बूड़ती डाहर के ढंग ल विकसित होही।

ये सब शंका के बीच हबीब तनवीर ह संस्कृत कथा मन ल पारम्परिक नाटय शैली म ढाल के प्रस्तुत करीस अउ ओमा सफल घलो होईस। अपन बात ल प्रमाणित कर दीस। हबीब तनवीर स्वयं बतईस के, ''हमर करा प्रोसीनियम स्टेज हावय। प्रकाश व्यवस्था हे, मंच के रूप साज हावय। शुरू-शुरू में मैं ह एखर उपयोग करेंव फेर बाद में सोचेंव के, मैं ह साधारण, सस्ता अउ किफायती रूप साज के उपयोग करंव। अइसनो प्रकाश व्यवस्था अउ मंच साज ल घलो करंव। मंच कइसना होही, दर्शक कहां बइठहीं, अभिनय कइसना करना हे- ये सब तय करना हे।'' हमन ल अपन परम्परा डाहर लहुटना हे। दुनिया ल अपन परम्परा के जानकारी देना हे। ये हर कथात्मक रूप म विश्वसनीय आधुनिक अउ समसामयिक हो।

ये सब बात ऊंखर नाटक के प्रस्तुतीकरण के बेरा म हबीब तनवीर ह कहे रहिस हे, के ये आंचलिक मुहावरा के नाटक ल दिल्ली म प्रस्तुत करे के एक उद्देश्य हे, के मैं ह व सभ्य समाज के बनावटी अउ ओढ़ आवरण ल उतार देना चाहथंव। ओमन ल अइसना एहसास ले परिचित कराना चाहत हंव। जेन हे बहुत खरा, अधिक ऊर्जावान अउ जीवन्त हे। वोमन ल खुलके हंसे बर गुदगुदाना चाहथंव, रोवाना चाहथंव। जेखर वो मन ला आदत नइये। वो मन ल अइसना तरीका ले मिलवाना चाहथंव जेन अनौपचारिक हे। अभिनय के सौंदर्यशास्त्र म एक रेखा म बंध के अइसना हंसी-ठट्ठा ले मिलवाना चाहत हंव। जेखर कोनो अंत नइये।

हबीब तनवीर ह अपन कथनी ल करनी म बदलीस। लोककला ल आधुनिक परिदृश्य म अउ पाश्चात्य कला ल पारम्परिक परिदृश्य म रच के अउ मंच म प्रस्तुत करके देखा दिस। लोक नाटय ह लोक रुचि अनुसार प्रदर्शित होइस। दक्छिन म 'कथाकलि' गवत्कथा म विशेष अभिनय होय ले लगगे। महाराष्ट्र म तमाशा, बंगाल म जाजा नाटक, उत्तर भारत म नौटंकी के प्रदर्शन ल मनखे मन रुचि लेके देखे ले लगगें। ये लोक नाटक गांव के संग-संग महानगर के रंगमंच म घलो होय ले लगगे। छत्तीसगढ़ म अइसना कई ठन पारम्परिक लोक कला हावय। नाचा, कर्मा, पंथी, पंडवानी, सरीख लोकगीत अउ नृत्य के अलग-अलग शैली ल मिला के लोकनाटय के मंचन होथे। हबीब ह ओमा अपन आप ल समर्पित कर दीस।

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