गुरू की महिमा, उनका वैभव और मनुष्य जीवन की मुक्ति साधना के पथ में उनके अमूल्य योगदान का जो वर्णन हमें हिन्दू धर्म में मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। बाकी धर्मों में उनके पैगंबर, ईशारदूत या मसीहाओं का उल्लेख है पर व्यक्तिगत स्तर परजिसप्रकार हम अपने गूरुद्वारा दीक्षित होते हैं, गुरूमंत्र ग्रहण करते हैं और गुरू को साक्षात परमेश्वर समझते हैं वैसे और कहीं भी किसी भी धर्म में नहीं है। संत कबीर ने कहा:
गुरू को मानुष जानते ते नर कहिए अधि एवं गुरू गोविंद दोउ एक हैं,गूरु नारायण रूप हैं, क्योंकि वे गोविंद दियो बताय। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा- ‘बंदउं गुरू पद कंज, कृपा सिन्धु नर रूप हरि ईश्वर की कृपा न हो तो सच्चे गुरू नहीं मिलते, मिलते हैं तो ढोंगी और ठग।’ कबीर कहते हैं-
’गुरवा तो सस्नामया, पैसा केर पचास।
रामनाम धन बेचिके शिष्य करन की आस।’
जब कबीर के जमाने में भी ऐसे ढोंगी गुरु होते थे तो आज का तो कहना ही क्या।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुं संत कहइ सब कोई।
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी कलियुग सोइ ज्ञानी सो बिरागी।
आज ी गोस्वामी जी की बात उतनी ही सच है। उच्चकोचि के संत और गुरू दुर्लभ हैं। जिन्होंने ईश्वर की अनुभूति नहीं की दर्शन नहीं किए वे भी बड़ी संख्या में शिष्य बनाए जा रहे हैं। आए दिन दूरदर्शन और समाचार पत्रों में ऐसे ढोंगियों की कथा उजागर होती रहती है।
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