Tuesday 11 July 2017

हिन्दी के समालोचकों द्वारा भुला दिए गए



पहले समालोचक : माधवराव सप्रे
सुशील कुमार त्रिवेदी

दोष किसका है, कुछ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन स्थिति यही है कि एक मराठी भाषी जीवन भर निष्ठïा तथा एकाग्रता से हिन्दी की सेवा करता रहा, और हिंदी के इतिहासकारों ने उसे भुला दिया। जिस व्यक्ति ने हिंदी में समालोचना-लेखन की परंपरा की नींव डाली, सशक्त निबंधों की रचना की और कई महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, उसी व्यक्ति पं. माधवराव सप्रे का नाम पंडित रामचंद्र शुक्ल और उनके ग्रंथ को आधार बना कर ‘नकल नवीस इतिहासकार’ बनने वालों को याद नहीं रहा, यह एक भूल है या साहित्य-इतिहासकारों की साधन-दरिद्रता है?

पिछड़े इलाके का अगुआ

मध्यप्रदेश, जो आज भी पिछड़ा माना जाता है, उसी का एक और पिछड़ा इलाका छत्तीसगढ़ सप्रेजी की कर्मभूमि रहा, इसी क्षेत्र में उन्होंने आज से लगभग 75 वर्ष पूर्व हिन्दी आंदोलन शुरू किया था। उन्हें छत्तीसगढ़ की सोंधी मिट्टïी से इतना ममत्व था, इतना अनुराग था कि उन्होंने अपने साहित्यिक मासिक पत्र का नाम ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ रखा। यह वही छत्तीसगढ़ मित्र है जिसमें सबसे पहली बार हिंदी ग्रंथों की समालोचना प्रकाशित हुई। बनती संवरती रूप लेती हिन्दी में प्रकाशित होने वाले पहले ग्रंथों की पहली समालोचना को लिखने वाले सप्रे जी ही थे।

पेंड्रा (जिला-बिलासपुर) के राजकुमारों को पढ़ाने से मिलने वाले वेतन में से पैसा बचाकर सप्रे जी ने जनवरी 1900 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन आरंभ किया। पं. श्रीधर पाठक, जिन्हें आचार्य शुक्ल ने ‘सच्चे स्वच्छंदतावाद का प्रवत्र्तक’ माना है, की सबसे महत्वपूर्ण कृतियों,- ऊजड़ ग्राम, एकांतवासी योगी, जगत सचाई सार, धन-विजय, गुïणवंत हेमंत तथा अन्य, की विस्तृत विश्लेषणात्मक और विवेचनात्मक वैज्ञानिक समालोचना इसी पत्र में पहली बार प्रकाशित हुई। इसी प्रकार मिश्रबंधु तथा पं. कामता प्रसाद गुरु आदि तत्कालीन महत्वपूर्ण साहित्यकारों की कृतियों की समालोचना सप्रे जी ने ही लिखी। इसके अतिरिक्त पं. महावीर प्रसाद मिश्र, पं. कामता प्रसाद गुरु, पं. गंगा प्रसाद अग्निहोत्री, पं. श्रीधर पाठक आदि की रचनाएं प्राय: ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित होती रही।

कुछ वर्ष पूर्व एक ख्याति प्राप्त कहानी-मासिक (सारिका) पत्रिका में एक परिचर्चा प्रकाशित हुई, जिसमें माधवराव सप्रे द्वारा लिखित ‘एक टोकरी भर मिट्टïी’ को हिंदी की पहली मौलिक कहानी बताया गया था। यह कहानी ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में सन् 1901 में प्रकाशित हुई थी।

अर्थाभाव के कारण ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन दिसंबर, 1902 में बंद हो गया, पहले एक साल तक इसका मुद्रण रायपुर कैयूमी प्रेस में हुआ, किंतु बाद में यह नागपुर के देशसेवक प्रेस में मुद्रित होता था।

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