Tuesday 11 July 2017

सप्रेजी के जीवन की आधारशिलाएं



सप्रे जी के समग्र जीवन पर एक विहंगम दृष्टिï डालने से ऐसा लगता है कि उन पर तीन महानुभावों के जीवन-दर्शन का पूर्ण प्रभाव पड़ा था। वे तीन महानुभाव थे विष्णुशास्त्री चिपुलणकर, बाल गंगाधर तिलक और गोपाल गणेश आगरकर। इनमें से चिपलुणकर तो हाई स्कूल की अध्यापकी छोडक़र मराठी भाषा की सेवा में हो गए और इसी उद्देश्य से मराठी भाषा में एक निबंध माला का प्रकाशन करने लगे। उन्होंने मराठी भाषा को प्राणवान बनाने के लिए अथक प्रयत्न किया और स्वदेश प्रेम की भावना भरने के लिए चोटी की पसीना एड़ी तक बहने दिया। दूसरे दो सज्जन-तिलक और आगरकर, चिपलुणकर के घनिष्ठï सहयोगी थे और देश के प्रति कर्तव्य पालन में ही अपने जीवन की सार्थकता मानते थे।

इस त्रिमूर्ति ने जिस प्रकार स्वार्थ का त्याग कर अविश्रांत परिश्रम करके मराठी भाषा को ओजस्वी, सामथ्र्यवान और संपन्न बनाया उसी प्रकार राष्टï्रभाषा हिंदी को भी सशक्त और सर्वगुण संपन्न, दोष रहित बनाना आवश्यक है- यह संकल्प सप्रे जी ने मन ही मन कर लिया। उन्होंने अपनी कार्य प्रणाली की रूपरेखा भी उसी अवसर पर निश्चित कर ली कि पहले बी.ए. तक शिक्षण प्राप्त कर डिग्री प्राप्त कर ली जाए जिससे उन्हें अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सहायता मिले और कोई रुकावट न हो। वे चाहने लगे कि शिक्षा का निवियोग निरपेक्ष सेवा में हो, कोई बदला पाने की भावना न रहे। इससे उन्हें जो सुख मिलेगा वही सच्चा सुख है और सुख प्राप्त करना ही प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अंतिम लक्ष्य रहता है।

सप्रे जी की अभिलाषा : सप्रे जी ने हिंदी भाषा के संबंध में अपने संकल्प को सन् 1924 में देहरादून में आयोजित अखिल भारत हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति के आसन से इस प्रकार प्रकट किया था- ‘‘मेरे हृदय में राष्टï्रभाषा का भाव पैदा हुआ- अनुभव किया कि इस विशाल देश में एक ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे सब प्रांतों के लोग अपनी राष्टï्रभाषा मानें और वह हिंदी भाषा को छोडक़र अन्य कोई नहीं है। मैं महाराष्ट्रीय हूं परंतु हिंदी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है जितना किसी हिंदी भाषी को हो सकता है। मैं चाहता हूं कि इस राष्टï्रभाषा के सामने भारत वर्ष का प्रत्येक व्यक्ति वह यह भूल जाए कि मैं महाराष्टï्रीयन हूं, बंगाली हूं, गुजराती हूं या मदरासी हूं। ये मेरे पैंतीस वर्षों के विचार हैं और तभी से मैंने इस बात का निश्चय कर लिया है कि मैं आजीवन हिंदी भाषा की सेवा करते रहूंगा। मैं राष्ट्रभाषा को अपने जीवन में ही सर्वोच्च आसन पर विराजमान देखने का अभिलाषी हूं। ’

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